जुए के तले ही सही
जो चले
वे ही आगे बढ़े
जिनकी गर्दन पर भार होता है
उनके ही हृदय में क्षोभ होता है
कैद होते हैं जिनके अरमान
वे ही देखते हैं मुक्ति के स्वप्न
किसी पैंटिंग गैलरी में शिवराम नाम के शख्स की यह पंक्तिया पढ़ने को मिली थी। बच्चों की आजादी जहां समाप्त हो जाती है वहां बालश्रम शुरु हो जाता है। ये पंक्तिया वाकई अपने आप में गहरा भाव पैदा करती हैं। बालश्रम आज भारत में ही नहीं वरन पूरी दुनियां के कई गरीब मुल्कों में बड़ी समस्या बनकर उभरती जा रही है। प्रत्येक साल बारह जून को बाल श्रम के खिलाफ विश्व बाल श्रम दिवस मनाया जाता है। लेकिन यह समस्या खुद हमारे आस-पास और हमारे देश में ही बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है तो अपने नजदीक से इसे देखना जरुरी होगा। आए दिन बाल श्रमिकों के पकड़े जाने के समाचार सुर्खियों में रहते हैं लेकिन इस समस्या का स्थायी समाधान अभी दूर की कौड़ी है। आजादी के 69 सालों बाद भी हम कोई कारगर नीति नहीं बना पाये, जो एक चिंताजनक सवाल है। इस प्रथा को कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने बच्चों के शोषण की संज्ञा दी है।
अतीत में बाल श्रम का कई प्रकार से उपयोग किया जाता था, लेकिन सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा के साथ औद्योगीकरण, काम करने की स्थिति में परिवर्तन तथा कामगारों के श्रम अधिकार और बच्चों के अधिकार की अवधारणाओं के चलते इसमें जनविवाद प्रवेश कर गया। बाल श्रम अभी भी कुछ देशों में आम बात है और भारत में यह समस्या काफी गहरी है। सरकार भी यह स्वीकार करती है कि बाल श्रम की समस्या देश के समक्ष एक गंभीर चुनौती है। सरकार इस समस्या को सुलझाने के लिए विभिन्न सकारात्मक सक्रिय क़दम उठाने के साथ मानती है कि यह समस्या मूलतः एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है जो विकट रूप से ग़रीबी और निरक्षरता से जुड़ी है और इसे सुलझाने के लिए समाज के सभी वर्गों द्वारा ठोस प्रयास करने की ज़रूरत है।
सरकारी आंकड़ों पर अगर गौर फरमाएं तो भारत में अभी दो करोड़ से ज्यादा और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठनों के मुताबिक पांच करोड़ से ज्यादा बालश्रमिक हमारे देश में हैं यानि की दुनिया के कई देशों की जनसंख्या से भी अधिक भारत में बाल श्रमिकों की संख्या है। इनमें से लगभग उन्नीस फीसदी बच्चे घरेलू नौकर हैं, और कृषि व औद्योगिक क्षेत्र अस्सी फीसदी बालश्रमिक जुड़ें हैं।
सरकार ने बहुत पहले 1979 में बाल श्रम की समस्या के अध्ययन और उससे निपटने के लिए उपाय सुझाने हेतु गुरुपादस्वामी समिति का गठन किया था। समिति ने अपनी सिफारिशें करते हुए पाया कि जब तक ग़रीबी जारी रहेगी, तब तक बाल श्रम को पूरी तरह मिटाना मुश्किल हो सकता है और इसलिए किसी क़ानूनी उपाय के माध्यम से उसे समूल मिटाने का प्रयास व्यावहारिक प्रस्ताव नहीं होगा। समिति ने महसूस किया कि इन परिस्थितियों में ख़तरनाक क्षेत्रों में बाल श्रम पर प्रतिबंध लगाना और अन्य क्षेत्रों में कार्यकारी परिस्थितियों को विनियमित करना और उनमें सुधार लाना ही एकमात्र विकल्प है। उसने सिफ़ारिश की कि कामकाजी बच्चों की समस्याओं से निपटने के लिए विविध-नीति दृष्टिकोण आवश्यक है।
इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 1986 में बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम लागू किया गया। उपरोक्त दृष्टिकोण के अनुरूप, 1987 में बाल श्रम पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार की गई। नीति में बाल श्रमिकों के लाभार्थ सामान्य विकास कार्यक्रम पर ध्यान केंद्रित करने पर ज़ोर दिया गया। नीति के अनुसरण में 1988 के दौरान देश के उच्च बाल श्रम स्थानिकता वाले 9 जिलों में राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना प्रारम्भ की गई । इस योजना में काम से छुड़ाए गए बाल श्रमिकों के लिए विशेष पाठशालाएँ चलाने की परिकल्पना की गई।
बच्चों से वेश्यावृत्ति या उत्खनन, कृषि, माता पिता के व्यापार में मदद, अपना स्वयं का लघु व्यवसाय या अन्य छोटे मोटे काम हो सकते हैं, लिए जाते हैं । कुछ बच्चे पर्यटकों के गाइड के रूप में काम करते हैं, कभी-कभी उन्हें दुकान और रेस्तरां ( जहाँ वे वेटर के रूप में भी काम करते हैं) के काम में लगा दिया जाता है। बच्चों से बलपूर्वक परिश्रम-साध्य और दोहराव वाला काम लिया जाता है जैसे बक्से बनाना, जूते पॉलिश,स्टोर के उत्पादों को भंडारण करना और साफ-सफाई करना आदि। कारखानों और मिठाई की दूकान के अलावा अधिकांश बच्चे अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं, जैसे सड़कों पर कई चीज़ें बेचना,कृषि में काम करना या बच्चों का घरों में छिप कर घरेलू कार्य काम करना - ये कार्य सरकारी श्रम निरीक्षकों और मीडिया की जांच की पहुँच से दूर रहते हैं । दुखद स्थिति यह है कि ये सभी काम सभी प्रकार के मौसम में तथा न्यूनतम वेतन पर किए जाते हैं ।
यूनिसेफ के आंकड़ों की अगर मानें तो, दुनिया में लगभग 2.5 करोड बच्चे, जिनकी आयु 2-17 साल के बीच है वे बाल-श्रम में लिप्त हैं, जबकि इसमें घरेलू श्रम शामिल नहीं है। सबसे व्यापक अस्वीकार कर देने वाले बाल-श्रम के रूप हैं बच्चों का सैन्य उपयोग और बाल वेश्यावृत्ति है। कम विवादास्पद और कुछ प्रतिबंधों के साथ कानूनी रूप से मान्य कुछ काम है जैसे बाल अभिनेता और बाल गायक, साथ ही साथ स्कूलवर्ष( सीजनल कार्य) के बाद का कार्य, और अपना कोई व्यापार जो स्कूल के घंटों के बाद होने काम आदि शामिल है। बाल अधिकार के तहत यदि निश्चित उम्र से कम में कोई बच्चा घर के काम या स्कूल के काम को छोड़कर कोई अन्य काम करता है तो वह अनुचित या शोषण माना जाता है। किसी भी नियोक्ता को एक निश्चित आयु से कम के बच्चे को किराए पर रखने की अनुमति नहीं है। न्यूनतम आयु देश पर निर्भर करता है।सबसे ताकतवर अंतर राष्ट्रीय कानूनी भाषा है जो अवैध बाल श्रम पर रोक लगाती है, हालाँकि यह बाल श्रम को अवैध नहीं मानती है।
देश की सभी सरकारें बालश्रम की इस गहरी समस्या को रोकने के लिए प्रयास तो करती रही हैं लेकिन वह प्रयास भी सीमिति रहा है। या यू कहें उसकी भी अपनी सीमाएं रही हैं। कानून या योजना बना देने मात्र से ऐसी गंभीर समस्याओं का समाधान संभव नहीं है। इसमें सरकार से अधिक सामाजिक उत्तरदायित्व महत्वपूर्ण है । कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि समाज की सोच बदलने की जरूरत है। वह ऐसे बच्चों की जिंदगी बेहतर बनाने का संकल्प ले और ऐसे परिवारों की आजीविका की बाधाओं को उदारतापूर्वक दूर कर उन्हें संबल प्रदान करे । समाज न तो स्वयं बच्चों का शोषण करे और न अपने सामने किसी को करने दे। सरकार की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि ऐसे बच्चों के विकास और उत्थान में लगी संस्थाओं को उदारतापूर्वक सहयोग करे और पर्याप्त अनुदान दे ताकि वहाँ रहकर अपना जीवन सँवारने वाले बच्चे यह महसूस करें कि वे भी समाज के अभिन्न अंग हैं। इसके साथ ही बाल मजदूरी को सख्ती से रोकने के लिए घिसे पिटे पुराने कानूनों को खत्म कर वर्तमान समय के अनुकूल कारगर बनाया जाए।
जो चले
वे ही आगे बढ़े
जिनकी गर्दन पर भार होता है
उनके ही हृदय में क्षोभ होता है
कैद होते हैं जिनके अरमान
वे ही देखते हैं मुक्ति के स्वप्न
किसी पैंटिंग गैलरी में शिवराम नाम के शख्स की यह पंक्तिया पढ़ने को मिली थी। बच्चों की आजादी जहां समाप्त हो जाती है वहां बालश्रम शुरु हो जाता है। ये पंक्तिया वाकई अपने आप में गहरा भाव पैदा करती हैं। बालश्रम आज भारत में ही नहीं वरन पूरी दुनियां के कई गरीब मुल्कों में बड़ी समस्या बनकर उभरती जा रही है। प्रत्येक साल बारह जून को बाल श्रम के खिलाफ विश्व बाल श्रम दिवस मनाया जाता है। लेकिन यह समस्या खुद हमारे आस-पास और हमारे देश में ही बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है तो अपने नजदीक से इसे देखना जरुरी होगा। आए दिन बाल श्रमिकों के पकड़े जाने के समाचार सुर्खियों में रहते हैं लेकिन इस समस्या का स्थायी समाधान अभी दूर की कौड़ी है। आजादी के 69 सालों बाद भी हम कोई कारगर नीति नहीं बना पाये, जो एक चिंताजनक सवाल है। इस प्रथा को कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने बच्चों के शोषण की संज्ञा दी है।
अतीत में बाल श्रम का कई प्रकार से उपयोग किया जाता था, लेकिन सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा के साथ औद्योगीकरण, काम करने की स्थिति में परिवर्तन तथा कामगारों के श्रम अधिकार और बच्चों के अधिकार की अवधारणाओं के चलते इसमें जनविवाद प्रवेश कर गया। बाल श्रम अभी भी कुछ देशों में आम बात है और भारत में यह समस्या काफी गहरी है। सरकार भी यह स्वीकार करती है कि बाल श्रम की समस्या देश के समक्ष एक गंभीर चुनौती है। सरकार इस समस्या को सुलझाने के लिए विभिन्न सकारात्मक सक्रिय क़दम उठाने के साथ मानती है कि यह समस्या मूलतः एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है जो विकट रूप से ग़रीबी और निरक्षरता से जुड़ी है और इसे सुलझाने के लिए समाज के सभी वर्गों द्वारा ठोस प्रयास करने की ज़रूरत है।
सरकारी आंकड़ों पर अगर गौर फरमाएं तो भारत में अभी दो करोड़ से ज्यादा और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठनों के मुताबिक पांच करोड़ से ज्यादा बालश्रमिक हमारे देश में हैं यानि की दुनिया के कई देशों की जनसंख्या से भी अधिक भारत में बाल श्रमिकों की संख्या है। इनमें से लगभग उन्नीस फीसदी बच्चे घरेलू नौकर हैं, और कृषि व औद्योगिक क्षेत्र अस्सी फीसदी बालश्रमिक जुड़ें हैं।
सरकार ने बहुत पहले 1979 में बाल श्रम की समस्या के अध्ययन और उससे निपटने के लिए उपाय सुझाने हेतु गुरुपादस्वामी समिति का गठन किया था। समिति ने अपनी सिफारिशें करते हुए पाया कि जब तक ग़रीबी जारी रहेगी, तब तक बाल श्रम को पूरी तरह मिटाना मुश्किल हो सकता है और इसलिए किसी क़ानूनी उपाय के माध्यम से उसे समूल मिटाने का प्रयास व्यावहारिक प्रस्ताव नहीं होगा। समिति ने महसूस किया कि इन परिस्थितियों में ख़तरनाक क्षेत्रों में बाल श्रम पर प्रतिबंध लगाना और अन्य क्षेत्रों में कार्यकारी परिस्थितियों को विनियमित करना और उनमें सुधार लाना ही एकमात्र विकल्प है। उसने सिफ़ारिश की कि कामकाजी बच्चों की समस्याओं से निपटने के लिए विविध-नीति दृष्टिकोण आवश्यक है।
इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 1986 में बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम लागू किया गया। उपरोक्त दृष्टिकोण के अनुरूप, 1987 में बाल श्रम पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार की गई। नीति में बाल श्रमिकों के लाभार्थ सामान्य विकास कार्यक्रम पर ध्यान केंद्रित करने पर ज़ोर दिया गया। नीति के अनुसरण में 1988 के दौरान देश के उच्च बाल श्रम स्थानिकता वाले 9 जिलों में राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना प्रारम्भ की गई । इस योजना में काम से छुड़ाए गए बाल श्रमिकों के लिए विशेष पाठशालाएँ चलाने की परिकल्पना की गई।
बच्चों से वेश्यावृत्ति या उत्खनन, कृषि, माता पिता के व्यापार में मदद, अपना स्वयं का लघु व्यवसाय या अन्य छोटे मोटे काम हो सकते हैं, लिए जाते हैं । कुछ बच्चे पर्यटकों के गाइड के रूप में काम करते हैं, कभी-कभी उन्हें दुकान और रेस्तरां ( जहाँ वे वेटर के रूप में भी काम करते हैं) के काम में लगा दिया जाता है। बच्चों से बलपूर्वक परिश्रम-साध्य और दोहराव वाला काम लिया जाता है जैसे बक्से बनाना, जूते पॉलिश,स्टोर के उत्पादों को भंडारण करना और साफ-सफाई करना आदि। कारखानों और मिठाई की दूकान के अलावा अधिकांश बच्चे अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं, जैसे सड़कों पर कई चीज़ें बेचना,कृषि में काम करना या बच्चों का घरों में छिप कर घरेलू कार्य काम करना - ये कार्य सरकारी श्रम निरीक्षकों और मीडिया की जांच की पहुँच से दूर रहते हैं । दुखद स्थिति यह है कि ये सभी काम सभी प्रकार के मौसम में तथा न्यूनतम वेतन पर किए जाते हैं ।
यूनिसेफ के आंकड़ों की अगर मानें तो, दुनिया में लगभग 2.5 करोड बच्चे, जिनकी आयु 2-17 साल के बीच है वे बाल-श्रम में लिप्त हैं, जबकि इसमें घरेलू श्रम शामिल नहीं है। सबसे व्यापक अस्वीकार कर देने वाले बाल-श्रम के रूप हैं बच्चों का सैन्य उपयोग और बाल वेश्यावृत्ति है। कम विवादास्पद और कुछ प्रतिबंधों के साथ कानूनी रूप से मान्य कुछ काम है जैसे बाल अभिनेता और बाल गायक, साथ ही साथ स्कूलवर्ष( सीजनल कार्य) के बाद का कार्य, और अपना कोई व्यापार जो स्कूल के घंटों के बाद होने काम आदि शामिल है। बाल अधिकार के तहत यदि निश्चित उम्र से कम में कोई बच्चा घर के काम या स्कूल के काम को छोड़कर कोई अन्य काम करता है तो वह अनुचित या शोषण माना जाता है। किसी भी नियोक्ता को एक निश्चित आयु से कम के बच्चे को किराए पर रखने की अनुमति नहीं है। न्यूनतम आयु देश पर निर्भर करता है।सबसे ताकतवर अंतर राष्ट्रीय कानूनी भाषा है जो अवैध बाल श्रम पर रोक लगाती है, हालाँकि यह बाल श्रम को अवैध नहीं मानती है।
देश की सभी सरकारें बालश्रम की इस गहरी समस्या को रोकने के लिए प्रयास तो करती रही हैं लेकिन वह प्रयास भी सीमिति रहा है। या यू कहें उसकी भी अपनी सीमाएं रही हैं। कानून या योजना बना देने मात्र से ऐसी गंभीर समस्याओं का समाधान संभव नहीं है। इसमें सरकार से अधिक सामाजिक उत्तरदायित्व महत्वपूर्ण है । कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि समाज की सोच बदलने की जरूरत है। वह ऐसे बच्चों की जिंदगी बेहतर बनाने का संकल्प ले और ऐसे परिवारों की आजीविका की बाधाओं को उदारतापूर्वक दूर कर उन्हें संबल प्रदान करे । समाज न तो स्वयं बच्चों का शोषण करे और न अपने सामने किसी को करने दे। सरकार की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि ऐसे बच्चों के विकास और उत्थान में लगी संस्थाओं को उदारतापूर्वक सहयोग करे और पर्याप्त अनुदान दे ताकि वहाँ रहकर अपना जीवन सँवारने वाले बच्चे यह महसूस करें कि वे भी समाज के अभिन्न अंग हैं। इसके साथ ही बाल मजदूरी को सख्ती से रोकने के लिए घिसे पिटे पुराने कानूनों को खत्म कर वर्तमान समय के अनुकूल कारगर बनाया जाए।
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