क्यों होता है 'वंदे मातरम्' पर विवाद

पिछले दो तीन दिन पहले वंदे मातरम नामक कथित राष्ट्रगीत को लेकर कमेंट किया था, जिस पर कई टिप्पणियॉ पढ़ने को मिली! पहले यह जान लें कि यह गीत बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंद मठ’ से लिया गया है और यह राष्ट्रगीत नहीं हिन्दू गीत है! अगर पूरा गीत पढ़ें तो पता चलेगा कि इसमें कथित मां के रूप में दुर्गा की स्तुति है।

रवींद्रनाथ टैगोर समेत कई लोगों ने इसको राष्ट्रगान बनाने का इसी आधार पर विरोध किया था कि अनेक धर्मों वाले भारत में ऐसा कोई गीत राष्ट्रगान नहीं बनाया जाना चाहिए, जिसमें किसी एक धर्म के देवी-देवता की स्तुति हो। यही नहीं यह गीत जिस उपन्यास से लिया गया है , वह अंग्रेजी शासन का विरोध नहीं, बल्कि समर्थन करता है। आपको शायद विश्वास न हो, लेकिन सच्चाई यही है।

गौर करें तो आनंद मठ की कहानी संन्यासी विद्रोह के ऐतिहासिक प्लॉट के आधार पर लिखी गई थी। किस्सा सन 1769 से शुरू होता है जब बंगाल में मीर जाफर के शासन काल में जबरदस्त अकाल पड़ा था। मीर जाफर के अराजक, अक्षम और क्रूर शासन में जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। ऐसे में उसके शासन को उखाड़ फेंकने के लिए सत्यानंद नामक एक संन्यासी एक सशस्त्र संगठन बनाता है, जिसके सदस्य गेरुआ पहनते हैं और कड़े नियमों का पालन करते हुए मातृभूमि को मुसलमान शासन से मुक्त कराने की कोशिश करते हैं। कहानी में मातृभूमि की संतान कहने वाले इन संन्यासियों को अंत में सफलता मिलती है और उत्तर बंगाल में संतानों का प्रभुत्व हो जाता है।

चूंकि मीर जाफर को अंग्रेज़ों का समर्थन प्राप्त था, इसलिए संतानों की अगली मुठभेड़ अंग्रेज़ी सेना से हुए। उपन्यास के मुताबिक संतानों ने बहादुरी से लड़ते हुए अंग्रेज़ी फौज को भी हरा दिया। लेकिन कथा के इसी बिंदु पर एक दिव्यपुरुष अवतरित होते हैं और सत्यानंद को युद्ध समाप्त करने का निर्देश देते हैं। उनके मुताबिक संतान विद्रोह का मकसद यही था कि अंग्रेज़ राज्याभिषिक्त हों।

दिव्यपुरुष कहानी के मुख्य पात्र सत्यानंद से कहते हैं, 'तुम्हारा काम पूरा हुआ। मुसलमान राज्य का ध्वंस हुआ। नाहक हत्या की अब ज़रूरत नहीं। अंग्रेज़ शत्रु नहीं, मित्र हैं। अंग्रेज़ी राज्य में लोग सुखी होंगे – निष्कंटक धर्माचरण करेंगे। इसलिए अंग्रेज़ों से लड़ने की ज़रूरत नहीं है।'

वह आगे कहते हैं, 'अंग्रेज़ अभी बनिया हैं, उनका ध्यान धन कमाने पर है, राज्य शासन का भार नहीं लेना चाहते। इस संतान विद्रोह के कारण वे शासन का भार लेने को मजबूर होंगे क्योंकि बिना राज्य शासन के धन कमाना संभव न होगा। अंग्रेज़ राज्याभिषिक्त हों, इसलिए यह संतान विद्रोह हुआ।' वह सत्यानंद को उनकी भूमिका के लिए शाबासी देते हुए कहते हैं, 'तुम्हारा व्रत पूरा हुआ। तुमने मां का मंगल किया, अंग्रेज़ों का राज्य ले आए। अब लड़ाई-झगड़ा छोड़ो, लोग खेती-बारी में लगें, धरती अनाज से भरी-पूरी हो, लोग खुशहाल और उन्नत हों।'

ऊपर के सारे उद्धरण एक पात्र के मुंह से कहलवाए गए हैं, लेकिन वे लेखक की ही टिप्पणियां हैं, इसका सबूत पुस्तक में ही अन्यत्र भी दिखता है। बंकिम बाबू ने एक स्थान पर लेखकीय वक्तव्य देते हुए लिखा है, 'संतानों को यह पता न था कि अंग्रेज़ भारत का उद्धार करने आए हैं। पता भी कैसे होता? समसामयिक अंग्रेज़ भी उस समय यह नहीं जानते थे। उस समय यह बात सिर्फ विधाता के मन में थी।'

‘आनंद मठ’ में जहां अंग्रेजों और अंग्रेजी शासन की मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई है, वहीं मुसलमानों के प्रति घृणा भी साफ झलकती है। इसी कारण इस उपन्यास को सांप्रदायिक कहा गया। देखने में आता है कि उपन्यास के पात्रों को यदि अंग्रेजों से कोई शिकायत है तो सिर्फ यह कि हिंदुओं और मुसलमानों के झगड़े में वे मुसलमान राजा का साथ क्यों दे रहे हैं? इस संवाद पर गौर कीजिए – शांति कहती है कप्तान टॉमस से : ‘…मारपीट हिंदू-मुसलमानों में चल रही है। तुम लोग बीच में कैसे टपक पड़े? लौट जाओ।’

इसी कप्तान टॉमस से एक और संन्यासी भवानंद कहता है, ‘कप्तान साहब, मैं तुम्हारी जान नहीं लूंगा। अंग्रेज़ हमारे दुश्मन नहीं हैं। तुम इन मुसलमानों की मदद में क्यों आए? मैं तुम्हें जान की भीख देता हूं – तुम बंदी हो। अंग्रेज़ों की जय हो, हम तुम्हारे सुहृद हैं।’

बंकिम चंद्र ने भवानंद के मुंह से अंग्रेज़ सैनिकों की तारीफ भी कराई है। भवानंद एक स्थान पर अंग्रेज़ और मुस्लिम सैनिक में फर्क करते हुए बताता है, ‘अंग्रेज़ जान जाने पर भी भाग नहीं सकता और मुसलमान को पसीन आया नहीं कि भागा – शरबत खोजता फिरेगा। …तोप का एक गोला देखकर मुसलमानों की पूरी जमात भाग जाएगी, जबकि तोपों की भीड़ देखकर कोई एक अंग्रेज़ भी नहीं भागेगा।’

संन्यासियों का मुस्लिम द्वेष उपन्यास में जगह-जगह झलकता है। सत्यानंद एक स्थान पर कहता है, ‘हम राज्य नहीं चाहते। चूंकि मुसलमान धर्म-विद्वेषी हैं, इसलिए उनका विनाश चाहते हैं।’ लड़ाई के दौरान उन्होंने इसे सच भी करके दिखाया। कुछ अंश देखिए – ‘वे गांवों में जाते। हिंदुओं से कहते, विष्णु पूजा करोगे? और कुछ लोगों को इकट्ठा करके मुसलमानों के घरों को आग लगा देते। वे बेचारे जान बचाने की फिक्र में लग जाते, इधर संतानगण उनका सबकुछ लूटकर नए विष्णुभक्तों को बांट देते। लोग लूट का हिस्सा पाकर खुश होते तो वे उन्हें मंदिर में ले जाते। भगवान का चरण छुआकर संतान बनाते। …कोई कहने लगा, भाई, वह दिन भी आएगा जब मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मंदिर बनाएंगे।‘

संतान जब जीत गए, तो विजयोन्माद में क्या-क्या करने लगे, इसका हाल लेखक ने इस तरह बयान किया है : ‘उस रात हरिनाम की गूंज से वह भूमि भर गई। … कुछ संतान गांव या शहर की तरफ दौड़े और रास्ते में जो भी राही या गृहस्थ मिलते, उनसे कहने लगे, कहो वंदे मातरम। नहीं कहोगे तो जान से मार डालेंगे। कोई हलवाई की दुकान लूटकर खाने लगे, तो कोई ग्वाले के घर-घुसकर दूध-दही के मटके में मुंह लगाने लगे। कहने लगे, हम सब ब्रजगोप आए हैं, गोपियां कहां हैं? गांव-गांव, नगर-नगर में कोलाहल मच गया।’

बंकिम चंद्र इस आतंक राज के समर्थक नहीं लगते। वे मीर जाफर के शासन के खिलाफ हुए सशस्त्र संग्राम का पक्ष तो लेते हैं, लेकिन कहीं यह नहीं कहते कि मुसलमानों पर हुआ अत्याचार ठीक था। मुसलमानों पर हिंदुओं के गुस्से का कारण भी वह मीर जाफर के कुशासन को ही देते हुए लिखते हैं : ‘ मुसलमानों से लोग जी से बिगड़े हुए थे क्योंकि अराजकता थी, शासन ठीक नहीं था। हमले के शिकार मुसलमानों के लिए भी उन्होंने ‘बेचारे’ शब्द का प्रयोग किया है। बल्कि लड़ाई में विजय के बाद दिव्यपुरुष के मुंह से वे यह कहलवाते हैं, ‘सत्यानंद, तुमने दस्युवृत्ति द्वारा धन संग्रह करके लड़ाई जीती है। पाप का फल कभी पवित्र नहीं होता। इसलिए तुम देश का उद्धार नहीं कर सकते।’

अब बंकिम ने ‘आनंद मठ’ में अंग्रेजों का समर्थन क्यों किया, इस पर हम नहीं जाएंगे। वे स्वयं अंग्रेजी शासन में बड़े अधिकारी थे, इसलिए यह स्वाभाविक है।अंग्रेजी शासन समर्थक इस उपन्यास का यह हिंदू गीतराष्ट्रगीत हरगिज नहीं हो सकता है!

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