कब आएगा बिरसा का "अबुआ दिशोम रे अबुआ राज"?

आज देश का एक ऐसा समाज जननायक बिरसा मुंडा की 116वीं पुण्यतिथि मना रहा है जो शायद आजाद भारत में दोनों सरकारों (कांग्रेस व बीजेपी) में सर्वाधिक उपेक्षित रहा। बिरसा महसूस किया करते थे कि झारखंड की धरती जितनी दूर तक फैली है यह उनका घर आंगन है। नदियां जितनी दूर तक बह रही हैं उतना लंबा इस समाज का इतिहास है। पहाड़ की ऊंचाई के जैसी ऊंची हमारी संस्कृति है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है। अंग्रेजों की शोषण नीति और भारत को मुक्त कराने में अनेक महपुरूषों ने अपनी शक्ति और शहादतें दी हैं। बिरसा मुंडा एक ऐसे महानायक हैं, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व एक आदिवासी नेता के रूप में किया। जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण की आहुति दी।
मुंडाओं ने 1895- 1900 में बिरसा के नेतृत्व में खूंटकटी के अधिकार को समाप्त करने के विरुद्ध उलगुलान आंदोलन किया। साल 1907-1908 में  छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट बना। वे उलगुलान द्वारा अलग झारखंड राज्य की स्थापना चाहते थे। यदि सही मायने में देखा जाये, तो बिरसा मुंडा उस समय के राजनीतिक - सामाजिक परिस्थितियों की उपज थे। उनके पूर्व ही छोटानागपुर के आदिवासी मुंडाओं ने पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। उनके प्रखर नेतृत्व का उभरना तत्कालीन समय की मांग थी। बिरसा मुंडा के पूर्व अनेक आदिवासी नेताओं ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था। जिसमें 1772-1780 में पहाड़िया विद्रोह हुआ। सन 1780-85 में तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने अंगरेजों के खिलाफ विद्रोह किया। 1794 में विष्णु मानकी के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह हुआ था।
1800-1802 में पलामू में भूखन सिंह के नेतृत्व में चेरो विद्रोह हुआ था। 1807 में तमाड़ इलाके में दुखन मानकी के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह हुआ। 1831 में सिंदराय और बिंदराय मानकी ने अंगरेजी सरकार और स्थानीय शोषकों के विरुद्ध कोल विद्रोह किया था। बिरसा मुंडा ने कुछ महत्वपूर्ण लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उलगुलान आंदोलन किया। जिसमें वे जल, जमीन और जंगल जैसे संसाधनों की रक्षा करना चाहते थे। दूसरा, महिलाओं प्रतिष्ठा की रक्षा और सुरक्षा करना चाहते थे। 9 जून 1900 को रांची के जेल मोड़ स्थित कारागार में बिरसा मुंडा की मृत्यु हुई थी। नौ जून 2015 को उनकी 115 वीं पुण्यतिथि मनायी जा रही है। झारखंड में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाता है। बिरसा के नेतृत्व में 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे। बिरसा और उसके चाहनेवाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। 
अगस्त 1897 में बिरसा और उसके 400 सिपाहियों ने तीर कमान से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई, जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी, लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं। जनवरी 1900 में डोमबारी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे।
इसके बाद में बिरसा के नेतृत्व में कुछ लोगों की गिरफ्तारियां भी हुईं। अंत में स्वयं बिरसा भी तीन फरवरी 1900 को चक्र धरपुर में गिरफ्तार कर लिये गये। बिरसा मुंडा ने अपनी अंतिम सांसें 9 जून 1900 को रांची कारागार में ली। आज भी झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी समाज में बिरसा मुंडा को अपना महानायक माना जाता है। 
जब झारखंड में आदिवासियों का राज था तब यहां आदिम साम्यवाद स्थापित था। तब न आडंबर पूर्ण जीवन था, ना शोषण पूर्ण समाज था, न गैर बराबरी थी, न व्यक्तिवाद था, न नीरस जीवन था। झारखंड एक कमाता, खाता, नाचता, गाता, बजाता समाज था। मेहनती ईमानदारी और नृत्य संगीत के प्रति असीम अनुराग पूर्ण जीवन था। जंगल और जमीन से सब कुछ उपलब्ध था और भूमिहीन कोई न था। ऐसा कोई गांव नहीं था जहां अखरा न था जहां हर रात नाचना गाना बजाना चलता नहीं था। गरीबी का अभाव नहीं था। जीवन मधुर और सुंदर था ऐसी इनकी शिक्षा और संस्कृति थी। गांव-घरों में ताले क्या होते हैं लोग जानते तक नहीं थे।
लेकिन बड़ा सवाल अब भी यह है कि विकास के नाम पर औद्योगिकीकरण का रास्ता खुल रहा है लेकिन जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए कोई नीति या मसौदा तैयार नहीं है? जननेता बिरसा मुंडा के सपनों की भूमि पर आज विस्थापन का दंश लोग झेल रहे हैं? आदिवासी समाज की सामाजिक परम्पराएं, सांस्कृतिक धरोहर बिखने लगी है। आदिवासियों पर हमलों के मामले बढ़ते जा रहे हैं। समाजवादी ढांचे का आदिवासी समाज पूंजीवादी ताकतों का दंश झेलने पर विवश है। बिरसा मुंडा का सपना 'अबुआ दिशोम रे अबुआ राज (अपने देश में अपना शासन)' कब पूरा होगा? 
बिरसा मुंडा को एक तरफ लोगों ने भगवान बताना शुरु कर दिया है तो वहीं दूसरी तरफ आजादी के सात दशक के बाद सरकार को यह मालूम नहीं है कि बिरसा को शहीद का दर्जा है कि नहीं। मानों सरकारें इस जननेता और आदिवासी महानायक को भुला देना चाहती हों। 

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